Saturday, December 18, 2010

कब तक

कब तक बस यूँ ही
चलते जाना है?
  
अमूल्य मानव जीवन
के बेशक़ीमती पल
बीत रहे बेमकसद,
क्या हमारा लक्ष्य
सब कुछ खो कर बस
'हाथ का मैल' पाना है?
  
कब तक बस यूँ ही
चलते जाना है?
  
कौन मित्र कौन शत्रु
सबके इतने सारे चेहरे
असलियत जान पाना मुश्किल,
आस्तीन के साँप कई यहाँ
कब तक इंसानियत के नाम पर
सबको गले से लगाना है?
  
कब तक बस यूँ ही
चलते जाना है?
  
आधुनिकता के दौर में
ग्लोबल नेटवर्क से तो
संपर्क अटूट है,
बहुत से मसले खुद से हैं
थोड़ा समय मिले तो
अपने आप से बतियाना है.
  
कब तक बस यूँ ही
चलते जाना है?

हौसले गर हो बुलंद
और इरादे हो जब मजबूत
समय लेता इम्तिहान बड़े,
ईश्वर का खेल तो देखो
आग वहीं लगती है
जहाँ 'दीपक' का आशियाना है.
  
कब तक बस यूँ ही
चलते जाना है?

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