Thursday, November 10, 2022

मुरादें


वो दिन, वो लम्हे जब बीते साथ खुशियों के

उन्हें जब सोचता हूं तो यादें भींग जाती हैं !


वो जो पास होता है, हर दर्द भूल जाता हूं

वो अपनत्व पाता हूं कि आंखें भींग जाती हैं !


दिलों में प्रेम उमड़े तो दबाये दब नहीं पाता

शब्द खामोश रहते हैं पर बातें भींग जाती हैं !


जब हो कोई ग़म की शाम और वो हो उदास

दिल जलता है मेरा और रातें भींग जाती हैं !


कहीं तो सारी दलीलें भी यूंही जाया होती हैं

यहाँ निगाहें बोलती हैं जज्बातें भींग जाती हैं !


गले का हार, आँखों में प्यार और अधरों पे बहार

ये मेल सराबोर है ऐसा, मुलाकातें भींग जाती है ! 


कोई भी खुशी शेष ना रहे कभी जिंदगी में, 

इस दुआ में मेरी हर मुरादें भींग जाती हैं !

Saturday, November 5, 2022

कोरा पन्ना

निस्संदेह माँ का त्याग सर्वोपरि होता है पर हम पिता के संघर्ष को प्रायः भूल जाते हैं. पुरुष के दर्द को शब्द नहीं मिलता....
वह पुरुष जो पूरे घर के लिये खुद को घिसता है
कई रिश्तों के द्वंद के बीच सतत पिसता है.
अपनों बच्चों के लिये कभी रात भर जागता है
और दिन भर काम के सिलसिले में भागता है.

और इन सबके बीच उसकी खुद की ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं.
यह कविता "कोरा पन्ना" पिता के बारे में है. पुरुष के बारे में है.
याद कीजिये कि कैसे स्कूल में जब भी कभी कोई क्लास वर्क अधूरा रह जाता तो हम कुछ पन्ने कोरे छोड़ देते थे. और फिर अक्सर वो पन्ने यूं ही कोरे ही रह जाते थे. ऐसा ही डायरी लिखते समय भी होता है. और कुछ ऐसा ही हम सबके साथ ज़िंदगी में भी होता है जब कई अधूरी ख़्वाहिशों के पन्ने इस कारण कोरे ही रह जाते हैं कि वर्तमान की जिम्मेदारियों के बीच हमें समय ही नहीं मिल पाता है.
बस इसी भूमिका के साथ पेश है कुछ पक्तियां उसी कोरे पन्ने की जुबानी...


ज़िंदगी और ख़्वाब के बीच

की कशीदगी में जब

रोज़नामचे का उस दिन का

सफ़्हा स्याह हो जाता है,

और जिम्मेदारियों के तले

दिल अपनी कुछ अदद

नाकामयाब हसरतों से

लापरवाह हो जाता है.

तब वही नामुकम्मल

सा रह गया स्वप्न

फ़र्ज़ को समझाता है,

और यूं तन्हाई में

ज़िन्दगी का वो कोरा पन्ना

मुझसे बतियाता है.


माना...

माना कि

जीवन के तेरे

अध्याय सारे तय थे

और मेरे लिये सोचने को

न फुर्सत न समय थे.

तू सबों के लिये सोचने में

ही बस मशगूल था, 

और तुम्हें खुद को

भूल जाना कबूल था.


ज़रा रुक कर

और थोड़ा ठहर कर

अपने लिये भी 

कभी तो सोच लेते, 

सबके लिये जो यूं

अपने दिन रात लुटाते हो

उनमें से कुछ पल ही

खुद के लिये दबोच लेते.

तुम्हें क्या खबर कि

जब तू कहीं और

यूं ही खोया था, 

तब तुझे याद कर

यहां अकेले में

मैं कितना रोया था.


क्या तुम्हें याद भी है

कौन कौन सा पन्ना

कोरा छूट गया है, 

यानि कि तू अपनी

किन किन हसरतों से

पूरा रूठ गया है,

पता है मुझे कि

तू सुनेगा नहीं

पर दोहराता हूं, 

तेरी अधूरी ख्वाहिशें

ज़रा तुमको ही

याद तो दिलाता हूं.


तुम्हें अपने किसी

रेशमी स्वप्न

की राहों में खोना था,

अपने तन्हाई के कांधे पर

अपना सर रख कर

ज़ार ज़ार रोना था.

कुछ खुशनुमें घटाओं

की फुहारों में भींगना था

तुम्हें चाहतों के संग,

और भरना था ना

तुम्हें खाली पलकों पर

उन अनाहतों के रंग.

अपने शौक को

अपनी कामना

अभिलाषा को

तुझे पिरोना था

और कुछ पुराने संगियों

पुरानी यादों से

रु-बरु होना था


न जाने अपने ऐसे

कितनी ही ख्वाहिशों

से मुंह मोड़ा है, 

और कितने पन्नों

को यूं ही तुमने

कोरा ही छोड़ा है.


हां, पता है

पता है मुझे

तू फिर से यूं ही

भावनाओं में बहेगा, 

अनबुझी प्यास को

इन ख्वाहिशों को

अपने दिल से ही

कभी नहीं कहेगा, 

और तुमने जो मुझे

यूं कोरा छोड़ा है

ये कोरा ही रहेगा.


पर क्या हुआ

कि तेरी ये हसरतें

जो अधूरी हैं,

शायद इनके लिये

ईश्वर की कुछ

खास मंजूरी है, 

और यूं भी वो

जिम्मेदारियां जो

निभायी है तूने

ज्यादा जरूरी हैं.


और सही भी है

पूरा न होना चंद

तमन्नाओं का,

ज़िन्दगी नाम ही है

कुछ ऐसी ही

आशनाओं का.

बस इन कोरे पन्नों को

ज़िन्दगी की किताब से

कभी हटने मत देना.

उम्मीद की डोर को

फ़र्ज़ के हाथों से

छूटने मत देना, 

और तुम अपने

सपनों को

कभी टूटने मत देना...

कभी टूटने मत देना...!!! 


[कशीदगी= खींचतान, रोज़नामचा= डायरी, सफ़्हा = पन्ना, स्याह = काला, अनाहत = असीम, अनंत]

असली जेवर

  शादी के कुछ तीन चार महीने के बाद जब थोड़ा थम गया मन का उन्माद   भोलाराम को सहसा ही आया याद कि मधु - चंद्र का...