Sunday, December 28, 2025

क्या सोचता है ये चाँद

आसमान में भी एक चाँद है,

मेरे सिर पर भी एक चमकता,

वह रात को निकलता है साहब,

मेरा वाला पूरे दिन दमकता।


वह बादलों से आँख-मिचौनी खेले,

मैं  टोपी से हालत ढकता,

वह ठंडक बाँटे चाँदनी में,

मेरा पसीने में तपता।


दोनों गोल, दोनों पर दाग़,

दोनों ही चाँदी जैसा उजला,

आसमान वाले पर शेर लिखे जाते,

और मेरे वाले पर चुटकुला।


आईना रोज़ सच्चाई बोले,

ना कंघी, ना तेल की दरकार,

जो बचत होती हेयरकट में,

उसी से चलता घर-परिवार।


एक रात हिम्मत करके मैंने

चाँद मामा से पूछ ही डाला

आप घटते-बढ़ते रहते हो,

ये फिटनेस प्लान किसने डाला?


हँसकर बोले—“बेटा, सुन लो,

चिंता मत करो कि कुछ अधूरा है

कभी आधा भी चमक जाओ तो

ज़िंदगी के लिए वही पूरा है । 


मैंने कहा लॉग दाग़ गिनाते हैं,

बड़ी बारीकी से हर बार,

वह बोले, बिना दाग़ों के

कवि बेरोज़गार हो जाएँगे यार ।


कमियाँ ही पहचान बनती हैं,

छुपाने से कुछ हासिल क्या,

जो अपने जैसे दिखते हैं,

वो अपनों में हैं शामिल क्या ।


मेरी रोशनी तो उधार है,

सूरज से ली है भाई,

पर बाँटते वक्त कभी नहीं सोचा

कितनी है, कितनी आई ।


नहीं सबके बस का

कि सूरज सा हम जलें,

पर चाँद सी ठंढक रखो

और बाँटों जो भी मिले ।


कहकर चाँद ढलने लगा,

मैं सिर सहलाता रहा,

सोचा चाहे आसमान हो या सिर,

चमक का फ़र्ज़ निभाता रहा ।


चाहे मुझे देखो या आसमाँ को

कभी भी आप आज के बाद,

बस ये याद रखना कि

क्या सोचता है ये चाँद ।

तुम मेरा मौन पढ़ो

बातें सब फँसावा है,

लफ़्ज़ तो दुरावा है,

तुम मेरा मौन पढ़ो,

शब्द तो छलावा है।


जो कहा गया है अक्सर

वो सच कम, सलीका ज़्यादा है,

हर वाक्य में मतलब छुपा

और मुस्कान में बस वादा है।


आवाज़ों की इस भीड़ में

सच तो ख़ामोशी में है,

सुन सको तो, हर दलील

इसकी आगोशी में है।


अर्थ तो आँखों से टपकते हैं,

सांसों में उतर जाते हैं,

शब्द तो बस पर्दा हैं

भाव भीतर मर जाते हैं।


कितनी बार बोलते-बोलते

सच ने हार मान ली,

और मौन ने चुपचाप

पूरी कहानी जान ली।


जो समझे बिना कहे

वही अपना कहलाता है,

वरना हर बोले गए शब्द में

कुछ न कुछ गँवाया जाता है।


तो तुम शोर नहीं, ठहराव पढ़ो,

इन पंक्तियों का यही सार है,

बातें सब फँसावा हैं,

मौन ही असली इज़हार है।

अति-सोच

सौ बातों को

रख जेहन में,

पीड़ा हुई जब

व्यथित मन में।


और तब लगा

इस पर भी सोचें—

भई ये अति-सोच

मुझे क्यों दबोचे।


हर छोटी बात

पहाड़ बन जाए,

बीता हुआ कल

आज में घुस आए।

जो था ही नहीं

वो डर बन बैठे,

और मन का सुकून

कोने में सिमट जाए।


सोच के चक्र में

सोच ही पहरा है,

हर सवाल का

सवाल ही घेरा है।


उत्तर मिलता नहीं,

प्रश्‍न घूमता रहता,

मन खुद का ही

कैदी बन फिरता ।


ख़यालों के शोर में

ख्वाब जाने कहाँ खो गया 

और थकान ने कहा

बस बहुत हो गया ।


तब समझ आया

थोड़ा ठहरना सीखें,

हर ख्याल को

सच न मानें, ज़रा देखें।


कुछ बातें बहने दें

जैसे नदी का जल,

लहरों से लड़ना

ज़रूरी तो नहीं हर पल।


कभी मन से कहें—

बस, अब विराम,

और सोच को

दें कभी थोड़ा आराम।


क्योंकि जीना

केवल समझना नहीं,

कभी-कभी

न सोचना भी समाधान है,

कुछ सोचकर

आज ये लिखा

आज का बस

इतना ही ज्ञान है ।

माटी

मुलाज़मत की खातिर ही बस

रखे हमने बाहर को कदम

भूलें नहीं है आज भी अपनी जड़ें 

माटी से बहुत प्यार करते हैं हम ।


वो माटी जिसकी है अमिट कहानी,

हर कण में संस्कृति, हर कण में स्वाभिमानी।

जहाँ वैशाली ने जग को संदेश सुनाया,

प्रथम गणतंत्र का दीप विश्व में जलाया।



यहीं अशोक बने करुणा के महान अवतार,

थाम शांति का धम्म, छोड़ दिया तलवार 

स्तंभों पर अंकित शांति का अमर विधान,

जिस धरती ने पाया विश्व में सम्मान।


यहीं आर्यभट ने गगन को मापा था ज्ञान से,

अंकों को दी नई भाषा, गणित को पहचान से।

शून्य की शक्ति, तारों का गूढ़ हिसाब,

इस माटी ने विज्ञान को दिया अद्भुत ख्वाब।


नालंदा की ईंटों में विद्या की गूँज आज भी है

तक्षशिला की छाया में प्रश्नों की बूझ आज भी है

चाणक्य की नीति, चंद्रगुप्त का स्वाभिमान,

इसी माटी ने गढ़ा भारत का स्वर्णिम पहचान।


यहाँ मगध का सिंहासन था,

जहाँ से राज करना सीखा गया,

चंद्रगुप्त की दूरदृष्टि ने

पूरी दुनिया को रास्ता दिया।


चाणक्य यहाँ पैदा हुए थे,

जिन्होंने चालाकी नहीं, नीति लिखी,

तख़्त नहीं, व्यवस्था गढ़ी

और राजनीति ने इज़्ज़त सिखी।


यहीं बुद्ध को बोध मिला,

यहीं महावीर ने राह दिखाई,

तलवार नहीं, विचार उठे

और दुनिया झुकती चली आई।


गुरु गोविंद सिंह की जन्मभूमि पावन यह धरा,

जहाँ से उठी ज्वाला, अन्याय से जा भिड़ा।

खालसा की हुंकार, धर्म और बलिदान,

जहाँ की माटी में बसता है शौर्य महान।



राजेन्द्र प्रसाद की सरलता, सेवा और त्याग,

जन-जन के राष्ट्रपति, सादगी का अनुराग।

लोकतंत्र की नींव को जिसने सदा संवारा,

उस यश को इस धरती ने गर्व से निहारा।


दिनकर की ओजस्वी वाणी, क्रांति का उद्गार,

कलम बनी तलवार, शब्द बने हुंकार।

“सिंहासन खाली करो” की जो गूँजी पुकार,

वह बिहार की माटी का ही तो था उपहार।


वो माटी जहाँ गंगा बहती है,

जहाँ पसीना पूजा जाता है,

जहाँ सपनों को नाम नहीं

संघर्ष से पहचाना जाता है।


फिर भी क्यूँ तौला जाता है

लहजे, बोली और शक्ल से,

एक मज़ाक, एक ठप्पा

बाँध सबको एक नक़ल से।


पता है कि प्रशंसा की तरह

आप हमसे अक्सर कहते हो,

पर मेरे लिये तो गाली ही है कि

यार तुम बिहारी नहीं लगते हो।


उस माटी से आकर दूर यहाँ

देश का भविष्य गढ़ते हैं हम,

हाँ, बिहारी लगते नहीं हैं हम,

बिहार को दिल में रखते हैं हम ।

क्या सोचता है ये चाँद

आसमान में भी एक चाँद है, मेरे सिर पर भी एक चमकता, वह रात को निकलता है साहब, मेरा वाला पूरे दिन दमकता। वह बादलों से आँख-मिचौनी खेले, मैं  टोप...