सौ बातों को
रख जेहन में,
पीड़ा हुई जब
व्यथित मन में।
और तब लगा
इस पर भी सोचें—
भई ये अति-सोच
मुझे क्यों दबोचे।
हर छोटी बात
पहाड़ बन जाए,
बीता हुआ कल
आज में घुस आए।
जो था ही नहीं
वो डर बन बैठे,
और मन का सुकून
कोने में सिमट जाए।
सोच के चक्र में
सोच ही पहरा है,
हर सवाल का
सवाल ही घेरा है।
उत्तर मिलता नहीं,
प्रश्न घूमता रहता,
मन खुद का ही
कैदी बन फिरता ।
ख़यालों के शोर में
ख्वाब जाने कहाँ खो गया
और थकान ने कहा
बस बहुत हो गया ।
तब समझ आया
थोड़ा ठहरना सीखें,
हर ख्याल को
सच न मानें, ज़रा देखें।
कुछ बातें बहने दें
जैसे नदी का जल,
लहरों से लड़ना
ज़रूरी तो नहीं हर पल।
कभी मन से कहें—
बस, अब विराम,
और सोच को
दें कभी थोड़ा आराम।
क्योंकि जीना
केवल समझना नहीं,
कभी-कभी
न सोचना भी समाधान है,
कुछ सोचकर
आज ये लिखा
आज का बस
इतना ही ज्ञान है ।
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