जब मंदिर-मस्जिद विवाद अदालत तक पहुंचा
और कानून के फैसले का इन्तेजार हो रहा था
तो इस मन में कुछ विचार उमड़े, वो ही नीचे की पंक्तियों में वर्णित हैं-
थी मेरे दिल की
एक अनबुझी प्यास,
ईश्वर अवश्य करेगा पूरी
ऐसी थी मन को आस,
पर टूटी आख़िरी उम्मीद
हुआ लाचार मन उदास,
जब एक खबर सुनी
कानों ने यूँ ही अनायास,
खुद के आशियाने की
ईश्वर को जो तलाश,
कर रहा वो खुद ही
क़ानून की कयास.
मन के अन्दर जब कुछ ऐसे विचार भाव आते हैं जो कि कलम को उद्वेलित करते हैं कि उनको कविता, छंद, मुक्तक या यूँ ही एक माला में पिरो दूँ !! कुछ ऐसे ही विचारों का संग्रह किया है यहाँ पर !
Wednesday, September 29, 2010
Sunday, September 26, 2010
कभी तो समझ पाते
आँखो में आयी दिल की वो बात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
तुझे देखते ही मेरे दिल का खिल जाना,
इतनी खुशी मानो जन्नत ही मिल जाना.
बिछूड़ते वक़्त वो मायूस से दूर खड़े हम,
रोम-रोम से टपकता वो विदाई का गम.
पागल दिल के वो बेकरार हालात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
परंपराओं के खिलाफ वो विद्रोही तेवर,
पर मौन मेरे होठों के कीमती जेवर.
दिल की बात जान को ही ना कह पाना,
कहते कहते बस यूँ ही चुप रह जाना.
मेरा जीवन हर साँस तेरी ही सौगात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
तेरी हर खुशी में मेरी आँखो की हँसी बेपर्द,
तेरी हर मायूसी में नम मेरे दिल के वो दर्द.
सदियों तक राह तकने को मेरी आँखे तैयार,
बेचैन दिल को बस तेरी आस तेरा ही इंतजार.
मेरे धड़कन के वो तड़पते ज़ज्बात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
काश तुम कभी तो समझ पाते.
तुझे देखते ही मेरे दिल का खिल जाना,
इतनी खुशी मानो जन्नत ही मिल जाना.
बिछूड़ते वक़्त वो मायूस से दूर खड़े हम,
रोम-रोम से टपकता वो विदाई का गम.
पागल दिल के वो बेकरार हालात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
परंपराओं के खिलाफ वो विद्रोही तेवर,
पर मौन मेरे होठों के कीमती जेवर.
दिल की बात जान को ही ना कह पाना,
कहते कहते बस यूँ ही चुप रह जाना.
मेरा जीवन हर साँस तेरी ही सौगात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
तेरी हर खुशी में मेरी आँखो की हँसी बेपर्द,
तेरी हर मायूसी में नम मेरे दिल के वो दर्द.
सदियों तक राह तकने को मेरी आँखे तैयार,
बेचैन दिल को बस तेरी आस तेरा ही इंतजार.
मेरे धड़कन के वो तड़पते ज़ज्बात,
काश तुम कभी तो समझ पाते.
Saturday, September 25, 2010
वजन ईमानदारी का
वजन करने की मशीन स्टेशन पर दिखी जब,
कितना भारी हुआ हूँ जानने की इच्छा हुई तब.
सिक्का डाला तो रिज़ल्ट निकलकर सामने आया,
जिसे पढ़कर मेरा मन थोड़ा सा चकराया.
सामने साफ दिख रहा था कि मैं हो गया हूँ भारी,
नीचे लिखा था- "आपके व्यक्तित्व की पहचान है ईमानदारी.
दोनो सच है इस पर नही हो रहा था विश्वास,
क्यूंकी दोनो बातों में था एक अजीब विरोधाभास.
भार के बारे में अब पुराना चलन नहीं रहा,
ईमानदारी में भई आजकल वजन नहीं रहा.
मंहगाई-मिलावट के जमाने में पौष्टिक खाना पाने से रहे,
इस कारण सिर्फ़ खाना खाकर तो हम मुटाने से रहे.
मंहगाई तो आजकल आसमान को छुने लगी है,
पानी भी तो बोतल बंद होकर मिलने लगी है.
शायद ये भी हो कल को आसमान में सूरज भी ना उगे,
कोई कंपनी उसे खरीद ले और धूप मुनाफ़े पे बेचने लगे.
यह सब सोच कर ये लगा यह मशीन मज़ाक कर रही है,
या फिर यह भी एक आदमी की तरह बात कर रही है.
आदमी रूपी वाइरस इसके अंदर प्रवेश कर गया है,
इसीलिए अब ये भी चापलूसी करना सीख गया है
इसबार मशीन को चेक करने के लिए सिक्का डाला,
पर अबकी तो उसने चमत्कार ही सामने निकाला,
मेरा वजन तो फिर से उतना ही दिखा था,
पर नीचे में तो कुछ अजब ही लिखा था.
लिखा था- "आप ऊँचे विचार वाले सुखी इंसान हैं"
मैं सोचा अजीब गोरखधंधा है कैसा व्यंग्यबाण है.
विचार ऊँचे होने से भला आज कौन सुखी होता है,
सदविचारी तो आज हर पल ही दुखी होता है.
बुद्ध महावीर के विचार अब किसके मन में पलते हैं,
गाँधीजी तो आजकल सिर्फ़ नोटों पर ही चलते हैं.
ऊँचा तो अब सिर्फ़ बैंक बॅलेन्स ही होता है,
नीतिशास्त्र तो किसी कोने में दुबक कर रोता है.
सदविचार तो आजकल कोई पढ़ने से रहा,
जिसने पढ़ लिया उसका वजन बढ़ने से रहा.
आइए आपको अब सामाजिक वजन बढ़ने का राज बताते हैं,
जब हम दूसरों पे आश्रित होते हैं लदते हैं तभी मूटाते हैं.
नेता जनता को लूटते हैं और वजन बढ़ाते हैं,
साधु भक्तों को काटते हैं अपना भार बढ़ाते हैं.
बड़े साहेब जूनियर्स को काम सरकाते हैं इसलिए भारी कहलाते हैं,
कर्मचारी अफ़सर पर काम टरकाते हैं इसलिए भारी माने जाते हैं.
नहीं होता आजकल वजन किसी ईमानदार सदविचारी का,
हलकापन है नतीजा आज मेहनत, ईमान और लाचारी का.
कितना भारी हुआ हूँ जानने की इच्छा हुई तब.
सिक्का डाला तो रिज़ल्ट निकलकर सामने आया,
जिसे पढ़कर मेरा मन थोड़ा सा चकराया.
सामने साफ दिख रहा था कि मैं हो गया हूँ भारी,
नीचे लिखा था- "आपके व्यक्तित्व की पहचान है ईमानदारी.
दोनो सच है इस पर नही हो रहा था विश्वास,
क्यूंकी दोनो बातों में था एक अजीब विरोधाभास.
भार के बारे में अब पुराना चलन नहीं रहा,
ईमानदारी में भई आजकल वजन नहीं रहा.
मंहगाई-मिलावट के जमाने में पौष्टिक खाना पाने से रहे,
इस कारण सिर्फ़ खाना खाकर तो हम मुटाने से रहे.
मंहगाई तो आजकल आसमान को छुने लगी है,
पानी भी तो बोतल बंद होकर मिलने लगी है.
शायद ये भी हो कल को आसमान में सूरज भी ना उगे,
कोई कंपनी उसे खरीद ले और धूप मुनाफ़े पे बेचने लगे.
यह सब सोच कर ये लगा यह मशीन मज़ाक कर रही है,
या फिर यह भी एक आदमी की तरह बात कर रही है.
आदमी रूपी वाइरस इसके अंदर प्रवेश कर गया है,
इसीलिए अब ये भी चापलूसी करना सीख गया है
इसबार मशीन को चेक करने के लिए सिक्का डाला,
पर अबकी तो उसने चमत्कार ही सामने निकाला,
मेरा वजन तो फिर से उतना ही दिखा था,
पर नीचे में तो कुछ अजब ही लिखा था.
लिखा था- "आप ऊँचे विचार वाले सुखी इंसान हैं"
मैं सोचा अजीब गोरखधंधा है कैसा व्यंग्यबाण है.
विचार ऊँचे होने से भला आज कौन सुखी होता है,
सदविचारी तो आज हर पल ही दुखी होता है.
बुद्ध महावीर के विचार अब किसके मन में पलते हैं,
गाँधीजी तो आजकल सिर्फ़ नोटों पर ही चलते हैं.
ऊँचा तो अब सिर्फ़ बैंक बॅलेन्स ही होता है,
नीतिशास्त्र तो किसी कोने में दुबक कर रोता है.
सदविचार तो आजकल कोई पढ़ने से रहा,
जिसने पढ़ लिया उसका वजन बढ़ने से रहा.
आइए आपको अब सामाजिक वजन बढ़ने का राज बताते हैं,
जब हम दूसरों पे आश्रित होते हैं लदते हैं तभी मूटाते हैं.
नेता जनता को लूटते हैं और वजन बढ़ाते हैं,
साधु भक्तों को काटते हैं अपना भार बढ़ाते हैं.
बड़े साहेब जूनियर्स को काम सरकाते हैं इसलिए भारी कहलाते हैं,
कर्मचारी अफ़सर पर काम टरकाते हैं इसलिए भारी माने जाते हैं.
नहीं होता आजकल वजन किसी ईमानदार सदविचारी का,
हलकापन है नतीजा आज मेहनत, ईमान और लाचारी का.
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