फ़र्ज़ का मेरी ख़्वाहिशों से बहस बहुत हो गया
ना-उम्मीदियों का पेश-ओ-पस बहुत हो गया
चाहत है रिश्ते के अथाह समंदर-ए-बंदिश का
बेहिसाब खुले आसमां का कफ़स बहुत हो गया.
अक्खड़ कश्ती भी तकती है राह एक साहिल की
तूफां से अकेले जूझने का जूनूं बस बहुत हो गया.
खोल दे ज़रा अपने दिल का रास्ता इनके लिये तू
अब इन आंखों को तन का हवस बहुत हो गया.
इरादा किया है आज खुद के लिये कुछ करने का
हर किसी को खुश करने का सरकस बहुत हो गया.
आ एक बार तो मिल, कि ज़ेहन में बसा लूं तेरी सूरत
ख़्वाब भी आये तेरे चेहरे के बे-दरस बहुत हो गया.
पूछते हो आईने पर क्यूं चिपका रखी है तेरी तस्वीर
हर शीशे में दिखता मुझे मेरा अक्स बहुत हो गया.
तो क्या हुआ जो कोई एक हसरत नफ़ीस ना हुई
हर सोच हर नज़र हर कदम मुकद्दस बहुत हो गया.
मयस्सर हो वस्ल एक नफ़्स से भी काश ऐ ख़ुदा
जुदा हो जाता है मिल के हर शख़्स बहुत हो गया.
[पेश-ओ-पस= उधेड़बुन, कफ़स= बंधन, नफ़ीस= नापाक, मुकद्दस= पवित्र, मयस्सर= हासिल, वस्ल= मुलाकात, नफ़्स= आत्मा]
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