एक मंजिल तय तो दूसरी राह निकलती है
सच है कि ज़िंदगी तो बस यूं ही चलती है,
पर सफ़र तो तब होता है मुकम्मल यहाँ
जो किसी हमराही को तेरी कमी खलती है.
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सुर्ख आंखों में तू
आब थोड़ा बहने दे
ज़िंदगी को यूं ही
अज़ाब ज़रा सहने दे
बेमक़सद हो तो फिर
क्या मज़ा जीने का
अपना एक तो कोई
ख़्वाब अधूरा रहने दे.
[आब= पानी, अज़ाब= पीड़ा]
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