स्वर हुआ है मुखर मेरे प्रेम गीत का
मन मिला जो मुझे मेरे मनमीत का
तूने नजरें मिला, जो झुका ली नजर,
पाठ मैंने पहला पढ़ा प्रीत के रीत का.
मैं था तन्हा खड़ा कब से इस पार में
आज ज़िन्दगी दिखी मुझे उस पार में
तूने थामी कलाई तो उतरा दरिया में मैं
छोड़ देना नहीं कल को मंझधार में.
आस थी मंजिल की, थी राह तब नहीं
राह पायी, थी मंजिल की चाह जब नहीं
आज राह रहगुजर नज़रे मंजिल भी है
पांव मेंं चुभते कांटों की परवाह अब नहीं.
सुकून मिलता है तुझ संग चंद बातों से
और बिन बातों की भी उन मुलाकातों से
चांदनी ये मेरी चार दिनों की ही सही
है जोश लड़ने का अब अंधेरी रातों से.
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