Monday, October 11, 2010

लगन दिल की

दीवाना भँवरा मचल जाता है,
पागल परवाना जल जाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.

पत्तों पे पड़ी सुबह की ओस
जैसी कभी इसमें मासूम नमी,
ताज-ओ-तख्त भी हिला दे
ऐसी कभी इसकी ओजस गर्मी.

पावन कशिश की तपन में तो
हिमालय भी दहल जाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.

डगर होती बड़ी ये मुश्किल
कड़ी तपस्या पड़ता है करना,
पवित्र था जानकी का संयम
पड़ा था अग्निपरीक्षा से गुज़रना.

सच्ची हो गर तड़प मिलन की
फिर किसे राजमहल भाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.

दीवानापन था तुलसीदास का
विषधर भी लगा डोर समान,
लगन थी सावित्री की ऐसी
यम से छीन लाई गयी जान.

मीरा की भक्ति हो जाती अमर
भले दुनिया से वो गरल पाता है,
दिल की लगी में है वो बात,
पत्थर भी पिघल जाता है.

2 comments:

  1. लग्न दिल की असम्भव को सम्भव कर जाता है,लगो दिल से तो पत्थर भी पिघल जाता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी. मेरे ब्लॉग पर आने और मेरी रचनाओं को पढ़कर उनपर प्रतिक्रिया देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद चाचाजी 🙏

      Delete

your comment is the secret of my energy

असली जेवर

  शादी के कुछ तीन चार महीने के बाद जब थोड़ा थम गया मन का उन्माद   भोलाराम को सहसा ही आया याद कि मधु - चंद्र का...