Wednesday, March 6, 2024

आंखें

इनकार नहीं है, इज़हार भी कबूलते नहीं

रंग मेरे हिस्से के फिज़ा में मेरे घुलते नहीं

बात ज़रा सी है पर इसी पे सब मुनहसिर

आंखें तुम पढ़ते नहीं होंठ मेरे खुलते नहीं

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खुली आंखों से सपना देखता हूं

हां तुझमें कोई अपना देखता हूं

सब होठों की तेरी हंसी देखते हैं

मैं आंखों का तड़पना देखता हूं

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एक आदत सी है यूं बस चुप रहने की

एक आदत सी है सब अकेले सहने की, 

चाक जिगर के सीने हैं खुद ही इसलिये

एक आदत सी है सब ठीक है कहने की.

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हर कदम चोट लगी यूं कि चलना भूल गए

अजनबी लगा जो ज़माना, मिलना भूल गए 

अपनी उम्मीदों पर खरे उतरना मुश्किल है

इतनी बार बुझे हैं कि अब जलना भूल गए

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ना चर्चा-ए-नज़र का रहा ना ज़िक्रे हुनर का रहा

ना रहबर का रहा ना किसी के रहगुज़र का रहा

यूं ही घूमना है बस कभी इधर कभी उधर अब

मैं ना तो इधर का रहा और ना ही उधर का रहा.

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कुछ शेर, ग़ज़ल, कविताएँ बनाता हूं मैं

कुछ मेरे कुछ तेरे दिल की बताता हूं मैं

हाँ, सुनाने का शौक है और अंदाज़ भी

गर तुम्हें पसंद है तो बोलो, सुनाता हूं मैं

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