Tuesday, April 16, 2013

कुछ मुक्तक



"उल्फत मेरे दिल की, तेरे सामने होठों से खुला ही नहीं,
तेरी आँखों को चाहत थी मेरी, तूने कभी कबूला ही नहीं,
हमारी और तुम्हारी खामोश मुहब्बत में फरक इतना है,
तुम्हे हम याद ही नहीं और तुझे मैं कभी भूला ही नहीं !"



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"ईमारत बुलंद थी प्रेम की कभी, खुला आज भी दिल का दरवाजा है,
रंग गहरा था इश्क का कभी, अहसास आज भी प्यार का ताजा है,
ख्वाबों और यादों में भी अब तो मुलाकात अपनी होती नहीं 'दीपक',
भूल गए तुम मुझको सनम या फिर मेरी उम्र का तकाजा है !"


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ना जाने क्यों

दिल उदास है ना जाने क्यों,
एक प्यास है ना जाने क्यों,
तू न आया, न आएगा कभी
तेरी आस है ना जाने क्यों !

रहता तू दिल में, पता है मुझे
तेरी तलाश है ना जाने क्यों !

आम बातें ही हैं जिंदगी में मेरी
बस तू खास है ना जाने क्यों !

समझदार था, पर आज न होश है
न मुझे हवास है ना जाने क्यों !

मर्ज़ी का मालिक था दिल तब
अब देवदास है ना जाने क्यों !

दुख तो सांझ है, आनी जानी है ये
बरसों से मेरे पास है ना जाने क्यों !

मौत तो है निश्चित, आएगी एक दिन
फिर भी कयास है ना जाने क्यों !

Sunday, March 17, 2013

भाव मिलता नहीं, अब प्रेम-भाव को

बिसात शतरंज की, बूझो तुम दांव को,
मिर्चियाँ आँखों में, मत दिखा घाव को,
बोलियाँ लगती आज तीर-तलवार पर,
भाव मिलता नहीं, अब प्रेम-भाव को।

छोड़ दे भोलापन, भूल जा गाँव को,
लहरें विकराल हैं, थाम ले नाव को,
क्या पता है कहाँ पे छुपा जलजला,
रखना देख भाल के तुम यहाँ पांव को।

जोड़ ले दिल से दिल, तोड़ ठहराव को,
अश्क अनमोल है, रोक इस बहाव को,
स्वार्थ ने  है किया तुझको मुझसे अलग,
कर ले आलिंगन, छोड़ अलगाव को।

पुण्य पावन चरण, भूखे बर्ताव को,
रोये उनका ह्रदय, देख बदलाव को,
सर पे बूढी जो डाली न भाये तुझे,
कल तरसोगे तुम ठंडी सी छाँव को। 

Saturday, March 16, 2013

फागुन का मस्ती रस



"साधू ने भी मस्ती में शराब चढ़ा लिया,
 

चचा ने भी मुच्छी पे खिजाब लगा लिया,
 

फाग का रंग सब पे यूँ चढ़ा है 'दीपक',
 

मुर्गे ने भी डिनर में कबाब मंगा लिया !"

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"भले दिमाग़ हो न्यूटन-आर्यभट्ट से सवा सेर,
 

रुस्तम-गामा को भी करते हो दो पल में ढेर,
 

भंवरजाल ये ऐसा कि हार गये भगवंता भी
 

चूहे बन जाते शादी के बाद सारे बब्बर शेर."

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Friday, March 8, 2013

नारी दिवस: कुछ मुक्तक



शबरी बन अनूठा दुलार भी करती है,
सीता बन सब स्वीकार भी करती है,
नारी को अबला मत समझना कभी
चंडी बन दुर्जन संहार भी करती है !
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समता की दुहाई, बराबरी का रोना,
'नारियाँ हैं आगे', 'लड़कियाँ हैं सोना',
अपना सम्मान नहीं चाहती तू खोना,
पर खुद के घर में लड़का ही होना?
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नारियों की इज़्ज़त जो करते तुम फ़ना,
हे अधम, इक बात ज़रूर याद रखना,
जिस ईश्वर की करते तुम हो पूजा,
उस राम-कृष्ण को नारी ने ही जना !
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नारी दिवस का बस एक दिन,
और वर्ष भर नारी का अपमान !
गर बनाना तुझे स्वर्ग धरा को,
करो हर पल उनका सम्मान !!
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कभी माता तो कभी बहन के रूप में,
कभी पत्नी, कभी बेटी के स्वरूप में,
देती ना संबल जो नारी हर पल,
जल जाता नर जीवन की धूप में !

Wednesday, March 6, 2013

तो और बात है !!!

नींद को सपनों से तो सब लोग सजाते,
ख्वाब खुली आँखों में पले तो और बात है !

आवाज से आवाज तो कुँए भी मिलाते,
संग तेरे कदम भी चले तो और बात है !

कहीं नारे, कहीं धरने, कहीं कैंडल जलाते,
खून आँखों से जो उबले तो और बात है !

हसीनों की अदाओं पे हम मरते औ मिटाते,
दिल देश की खातिर मचले तो और बात है !

पाठ ईमान-धरम का वो सबको हैं पढ़ाते,
आगाज खुद से हो पहले तो और बात है !

ग़दर की राह क्यूँ बस औरों को ही दिखाते,
'आजाद' तेरे घर से निकले तो और बात है !

ये कैसी नीति !!!

जब एक बुजुर्ग नेताजी ने ओसामा को 'ओसामा जी' कहा था तो खून तो गरम हुआ था पर ये सोचा कि शायद वो सठिया गए हैं वरना राजनीति में ऐसी गिरावट की उम्मीद न की थी ! परन्तु जब एक ऐसे युवा राजनेता जिनसे भारत की नौजवान पीढ़ी को बहुत आशाएं हों वो भी उसी राह पे चल दें तो फिर ......... तो फिर???? ये बहुत जटिल प्रश्न बन जाता है-----

"उम्मीद के उगते सूरज को कीचड़ में तब सना दिया,
 

जब वोट को, कुर्सी को- ही तुमने मजहब बना लिया ।
 

अब मेरे देश की, कानून की भला क्या रही इज्जत,
 

संसद के लुटेरों को ही तूने जो 'साहब' बना दिया ।।"

Saturday, February 16, 2013

तकदीर

जिनके रंग से खिलती थी मुस्कानें जहाँ की,
उन्ही आँखों में सूख गयीं सारी आशाएँ अब।
कैसे बताएँ जमाने को वजह अपने गम की,
खुद को ही ना मालूम अपने उदासी का सबब।।


जिंदगी जो कभी हुआ करती थी सुनहरी सुबह,
आज वही ठहर कर धूमिल सांझ हो गयी है।
खुशियों के आगमन की उम्मीद ही है बेमानी
इस माने में अब तकदीर ही बांझ हो गयी है।।

कभी हम भी जिया करते थे अपनी शर्तों पर,
भरोसा था तो दिल को बस तदबीरों में।
जिंदगी ने पाठ कुछ यूँ पढाये हैं 'दीपक'
हंसी ढूंढता हूँ मैं अब हाथ की लकीरों में।।

Monday, January 7, 2013

सवेरा


"अश्रु भरे इन आँखों में, मुस्कानों का डेरा जाने कब होगा,

उम्मीदों के घोंसले में, खुशियों का बसेरा जाने कब होगा,

उजालों की ये किरणें तो रोज छिटक आती हैं कमरों में,

पर इस घर में, मेरी जिंदगी में, सवेरा जाने कब होगा !"

चक्रव्यूह


"समझौते तो कर लिए जिंदगी से,
खुशी की आस छोड़ न सका,

रिश्ते बस यूँ ही जुड़ गये, 
पर उनको बुनियाद से जोड़ न सका,

औरों को रस्ता बतला देना तो 
बहुत ही आसान होता है 'दीपक',

खुद अपनी जिंदगी के चक्रव्यूह 
का भेद आज तक तोड़ न सका!"

असली जेवर

  शादी के कुछ तीन चार महीने के बाद जब थोड़ा थम गया मन का उन्माद   भोलाराम को सहसा ही आया याद कि मधु - चंद्र का...