रात काली थी कब से, कभी सहर न हुई
जाना सबको, खुद से पहचान मगर न हुई
खुशी की तलाश में तो रहा मैं सदा ही
पर जाने क्यों वो कभी मेरी नज़र न हुई !
उसकी राह को मेरी आँखें तकती रही
पर उसको ख्याल कभी मेरी डगर न हुई !
सबको बताता जिंदगी जीने का फलसफ़ा
बातें पर वो मेरी खुद पर ही असर न हुई !
थी कभी हमें भी हासिल सुकूने नींद हर शब
किसने चुरा ली जो अब ये मुख़्तसर यूं हुई !
इश्क़ में तो दवा उसी के पास है जो दर्द दे
किस्मत थी कुछ ऐसी हमें पुर-असर न हुई !
मेरी भटकन का अहसास मुझे भी न था
और तूने छू कब लिया उसे, खबर न हुई !!
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