वर्ष 1958 की फिल्म अदालत में एक खूबसूरत गीत है जिसे राजेन्द्र कृष्ण साहेब ने लिखा और लता मंगेशकर जी ने आवाज दी. इसी गीत के रदीफ़ "हम कुछ नहीं कहते" को आगे बढ़ाते हुये कुछ बंध लिखे हैं.
पहले चार बंध मूल गीत से...
उनको ये शिकायत है
कि हम कुछ नहीं कहते
अपनी तो ये आदत है
कि हम कुछ नहीं कहते.
मजबूर बहुत करता है
ये दिल तो ज़ुबां को
कुछ ऐसी ही हालत है
कि हम कुछ नहीं कहते.
कहने को बहुत कुछ था
अगर कहने पे आते
दुनिया की इनायत है
कि हम कुछ नहीं कहते.
कुछ कहने पे तूफान
उठा लेती है दुनिया
अब इसपे कयामत है
कि हम कुछ नहीं कहते.
अब इसी रदीफ़ को लेकर कुछ बंध लिखे हैं मैंने, वो पेश कर रहा हूं.....
सुकून मिलता है दिल को
तुमको ही बताने में
फिर तुमसे ही ये फितरत क्यूं
कि हम कुछ नहीं कहते.
तुमने तो न देर की
बयां करने में जज़्बात
तुम पर ही क्यूं जुल्मात है
कि हम कुछ नहीं कहते.
अंदाजे बयां कितने हैं
जाने तो है ये तू भी
कशमकश सी लगी मन में है
कि हम कुछ नहीं कहते.
तुमने भी तो पढ़ा होगा
सुना करती हैं दीवारें भी
चार दीवारें हैं यहां, समझो क्यूं
कि हम कुछ नहीं कहते.
अरसे से तमन्ना थी तेरे
दिल के करीब जाने की
पास हो तुम फिर क्या उलझन
जो हम कुछ नहीं कहते.
मालूम है ख़ुदा सुनता है
गर यकीने दिल से कहो तो,
तुझमें ख़ुदा है, खुद पे भरोसा है
पर हम कुछ नहीं कहते?
गर चाहत को लगे पंख
तो चाहे खुला आसमां ही
मेरे ख़्बाव मेरी बात सुन ना ले
सो हम कुछ नहीं कहते.
मेरे शब्द ही कम-कद्र है
या आपके दाद की कमतरता
लगता है अच्छा ही था
कि हम कुछ नहीं कहते.
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