कलम भी वही थी और शब्द भी कहां बुरे थे
चित्र बेरंग ही थे सारे मेरे, पास रंग तो पूरे थे
नवाज़िश कैसे अदा करुं तेरा बता मुझे तूही
कविता शेर मुस्कान ख्वाब, सब तो अधूरे थे.
ज़िंदगी से परेशां हू पहेलियां यूं न बुझाया कर
गुम हूं अनजान राहों में तू भी न भटकाया कर
ज़माने ने बेवजह दे दिया दर्जा अक्लमंदी का
तू तो इत्मिनान से इस नादां को समझाया कर.
आंखों का आंखों में खोना जादू सबने जानी है
आंखों में डूब जाना इसकी तो अलग कहानी है
आंखों से दिल तक ना पहुंचे दिल की ही बात
आंखों का फिर आंखों से मिलना ही बेमानी है.
ग़म में यूं रोते रहने से बता होना क्या हासिल है
ना तेरे जानिब कस्ल है ये ना ही तू ना-काबिल है
मन को तू फ़तेह कर ले ज़ंग तेरी फिर आधी है
सोच ही तेरा दर्दे दरिया सोच ही तेरा साहिल है.
अलम पर यूं पर्दा न कर दर्द नासूर हो जायेगा
तेरा ग़म मेरे रंज से मिला तो ग़म दूर हो जायेगा
ज़माने की बातों का परवाह ही कयूं करना कभी
उंगलियां जो उठेगीं तो तू भी मशहूर हो जायेगा.
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