Thursday, November 10, 2022

मुरादें


वो दिन, वो लम्हे जब बीते साथ खुशियों के

उन्हें जब सोचता हूं तो यादें भींग जाती हैं !


वो जो पास होता है, हर दर्द भूल जाता हूं

वो अपनत्व पाता हूं कि आंखें भींग जाती हैं !


दिलों में प्रेम उमड़े तो दबाये दब नहीं पाता

शब्द खामोश रहते हैं पर बातें भींग जाती हैं !


जब हो कोई ग़म की शाम और वो हो उदास

दिल जलता है मेरा और रातें भींग जाती हैं !


कहीं तो सारी दलीलें भी यूंही जाया होती हैं

यहाँ निगाहें बोलती हैं जज्बातें भींग जाती हैं !


गले का हार, आँखों में प्यार और अधरों पे बहार

ये मेल सराबोर है ऐसा, मुलाकातें भींग जाती है ! 


कोई भी खुशी शेष ना रहे कभी जिंदगी में, 

इस दुआ में मेरी हर मुरादें भींग जाती हैं !

Saturday, November 5, 2022

कोरा पन्ना

निस्संदेह माँ का त्याग सर्वोपरि होता है पर हम पिता के संघर्ष को प्रायः भूल जाते हैं. पुरुष के दर्द को शब्द नहीं मिलता....
वह पुरुष जो पूरे घर के लिये खुद को घिसता है
कई रिश्तों के द्वंद के बीच सतत पिसता है.
अपनों बच्चों के लिये कभी रात भर जागता है
और दिन भर काम के सिलसिले में भागता है.

और इन सबके बीच उसकी खुद की ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं.
यह कविता "कोरा पन्ना" पिता के बारे में है. पुरुष के बारे में है.
याद कीजिये कि कैसे स्कूल में जब भी कभी कोई क्लास वर्क अधूरा रह जाता तो हम कुछ पन्ने कोरे छोड़ देते थे. और फिर अक्सर वो पन्ने यूं ही कोरे ही रह जाते थे. ऐसा ही डायरी लिखते समय भी होता है. और कुछ ऐसा ही हम सबके साथ ज़िंदगी में भी होता है जब कई अधूरी ख़्वाहिशों के पन्ने इस कारण कोरे ही रह जाते हैं कि वर्तमान की जिम्मेदारियों के बीच हमें समय ही नहीं मिल पाता है.
बस इसी भूमिका के साथ पेश है कुछ पक्तियां उसी कोरे पन्ने की जुबानी...


ज़िंदगी और ख़्वाब के बीच

की कशीदगी में जब

रोज़नामचे का उस दिन का

सफ़्हा स्याह हो जाता है,

और जिम्मेदारियों के तले

दिल अपनी कुछ अदद

नाकामयाब हसरतों से

लापरवाह हो जाता है.

तब वही नामुकम्मल

सा रह गया स्वप्न

फ़र्ज़ को समझाता है,

और यूं तन्हाई में

ज़िन्दगी का वो कोरा पन्ना

मुझसे बतियाता है.


माना...

माना कि

जीवन के तेरे

अध्याय सारे तय थे

और मेरे लिये सोचने को

न फुर्सत न समय थे.

तू सबों के लिये सोचने में

ही बस मशगूल था, 

और तुम्हें खुद को

भूल जाना कबूल था.


ज़रा रुक कर

और थोड़ा ठहर कर

अपने लिये भी 

कभी तो सोच लेते, 

सबके लिये जो यूं

अपने दिन रात लुटाते हो

उनमें से कुछ पल ही

खुद के लिये दबोच लेते.

तुम्हें क्या खबर कि

जब तू कहीं और

यूं ही खोया था, 

तब तुझे याद कर

यहां अकेले में

मैं कितना रोया था.


क्या तुम्हें याद भी है

कौन कौन सा पन्ना

कोरा छूट गया है, 

यानि कि तू अपनी

किन किन हसरतों से

पूरा रूठ गया है,

पता है मुझे कि

तू सुनेगा नहीं

पर दोहराता हूं, 

तेरी अधूरी ख्वाहिशें

ज़रा तुमको ही

याद तो दिलाता हूं.


तुम्हें अपने किसी

रेशमी स्वप्न

की राहों में खोना था,

अपने तन्हाई के कांधे पर

अपना सर रख कर

ज़ार ज़ार रोना था.

कुछ खुशनुमें घटाओं

की फुहारों में भींगना था

तुम्हें चाहतों के संग,

और भरना था ना

तुम्हें खाली पलकों पर

उन अनाहतों के रंग.

अपने शौक को

अपनी कामना

अभिलाषा को

तुझे पिरोना था

और कुछ पुराने संगियों

पुरानी यादों से

रु-बरु होना था


न जाने अपने ऐसे

कितनी ही ख्वाहिशों

से मुंह मोड़ा है, 

और कितने पन्नों

को यूं ही तुमने

कोरा ही छोड़ा है.


हां, पता है

पता है मुझे

तू फिर से यूं ही

भावनाओं में बहेगा, 

अनबुझी प्यास को

इन ख्वाहिशों को

अपने दिल से ही

कभी नहीं कहेगा, 

और तुमने जो मुझे

यूं कोरा छोड़ा है

ये कोरा ही रहेगा.


पर क्या हुआ

कि तेरी ये हसरतें

जो अधूरी हैं,

शायद इनके लिये

ईश्वर की कुछ

खास मंजूरी है, 

और यूं भी वो

जिम्मेदारियां जो

निभायी है तूने

ज्यादा जरूरी हैं.


और सही भी है

पूरा न होना चंद

तमन्नाओं का,

ज़िन्दगी नाम ही है

कुछ ऐसी ही

आशनाओं का.

बस इन कोरे पन्नों को

ज़िन्दगी की किताब से

कभी हटने मत देना.

उम्मीद की डोर को

फ़र्ज़ के हाथों से

छूटने मत देना, 

और तुम अपने

सपनों को

कभी टूटने मत देना...

कभी टूटने मत देना...!!! 


[कशीदगी= खींचतान, रोज़नामचा= डायरी, सफ़्हा = पन्ना, स्याह = काला, अनाहत = असीम, अनंत]

Sunday, October 2, 2022

बस बहुत हो गया

फ़र्ज़ का मेरी ख़्वाहिशों से बहस बहुत हो गया

ना-उम्मीदियों का पेश-ओ-पस बहुत हो गया

चाहत है रिश्ते के अथाह समंदर-ए-बंदिश का

बेहिसाब खुले आसमां का कफ़स बहुत हो गया.


अक्खड़ कश्ती भी तकती है राह एक साहिल की

तूफां से अकेले जूझने का जूनूं बस बहुत हो गया.


खोल दे ज़रा अपने दिल का रास्ता इनके लिये तू

अब इन आंखों को तन का हवस बहुत हो गया.


इरादा किया है आज खुद के लिये कुछ करने का

हर किसी को खुश करने का सरकस बहुत हो गया.


आ एक बार तो मिल, कि ज़ेहन में बसा लूं तेरी सूरत

ख़्वाब भी आये तेरे चेहरे के बे-दरस बहुत हो गया.


पूछते हो आईने पर क्यूं चिपका रखी है तेरी तस्वीर

हर शीशे में दिखता मुझे मेरा अक्स बहुत हो गया.


तो क्या हुआ जो कोई एक हसरत नफ़ीस ना हुई

हर सोच हर नज़र हर कदम मुकद्दस बहुत हो गया.


मयस्सर हो वस्ल एक नफ़्स से भी काश ऐ ख़ुदा

जुदा हो जाता है मिल के हर शख़्स बहुत हो गया.


[पेश-ओ-पस= उधेड़बुन, कफ़स= बंधन, नफ़ीस= नापाक, मुकद्दस= पवित्र, मयस्सर= हासिल, वस्ल= मुलाकात, नफ़्स= आत्मा]

Saturday, October 1, 2022

सफ़र

एक मंजिल तय तो दूसरी राह निकलती है

सच है कि ज़िंदगी तो बस यूं ही चलती है,

पर सफ़र तो तब होता है मुकम्मल यहाँ

जो किसी हमराही को तेरी कमी खलती है.

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सुर्ख आंखों में तू

आब थोड़ा बहने दे

ज़िंदगी को यूं ही

अज़ाब ज़रा सहने दे

बेमक़सद हो तो फिर

क्या मज़ा जीने का

अपना एक तो कोई

ख़्वाब अधूरा रहने दे.


[आब= पानी, अज़ाब= पीड़ा]


Sunday, September 25, 2022

स्वर

स्वर हुआ है मुखर मेरे प्रेम गीत का

मन मिला जो मुझे मेरे मनमीत का

तूने नजरें मिला, जो झुका ली नजर,

पाठ मैंने पहला पढ़ा प्रीत के रीत का.


मैं था तन्हा खड़ा कब से इस पार में

आज ज़िन्दगी दिखी मुझे उस पार में

तूने थामी कलाई तो उतरा दरिया में मैं

छोड़ देना नहीं कल को मंझधार में.


आस थी मंजिल की, थी राह तब नहीं

राह पायी, थी मंजिल की चाह जब नहीं

आज राह रहगुजर नज़रे मंजिल भी है

पांव मेंं चुभते कांटों की परवाह अब नहीं.


सुकून मिलता है तुझ संग चंद बातों से

और बिन बातों की भी उन मुलाकातों से

चांदनी ये मेरी चार दिनों की ही सही

है जोश लड़ने का अब अंधेरी रातों से.

अभिव्यक्ति

शब्दों में

तुम उतार दो

ह्रदय में

टीस ना रखो !


जो कह दिया

उसे लिखो

कह ना पाये

वो लिखो !


कागज पर

मन उकेर दो

कुछ रंग ही

बिखेर दो !


जग की नहीं तो

खुद पर लिखो

कुछ शब्द ही

मगर लिखो !


किसी बिछड़े

को सदा दो

किसी अपने

को पुकारो !


अश्रु लिखो

मुस्कान लिखो

दिल का ही

बयान लिखो !


कल्पना का

आयाम हो

पर सत्य को

मुकाम दो !


स्वप्न लिखो

यथार्थ लिखो

पर हो जिसका

कोई अर्थ, लिखो !

Friday, September 23, 2022

गीत


प्रेम सब से करो हक तो है ये तेरा
हर किसी पे यूं हक पर जताना नहीं
प्यार दिल में रखो, है गलत कुछ नहीं
प्यार उसको भी हो फिर छुपाना नहीं.

मन में अलमस्त सी कुछ तरंगें उठीं
तेरी अंगुली ने जब मेरे तन को छुआ
तूने हाथों में जो हाथ अपना दिया
दिल का हर एक कोना बसंती हुआ.
रुत बसंत ये मेरा फिर न हेमंत बने
तुम ये हाथ फिर मुझसे छुड़ाना नहीं.

कब से था यूं ही गुम मैं किसी सोच में
शब्द कागज़ पर उतरे तू जब दिखा
इस गीत में नज़्म में, है भला मेरा क्या
तूने खुद अपनी सूरत से इसको लिखा.
अब तो शब्दों की गंगा ये बहती रहे
बस तुम नज़रों को मुझसे चुराना नहीं.

थी सुहानी सी रात पर जला चुपचाप
और रौशन यूं दिल को तुम्हारे किया
जो सवेरा हुआ, कुछ हसरतें थीं मेरी
तूने मुझको बुझा कर किनारे किया.
ये है दीपक और इसको तो जलना ही है
इसकी परवाह में दिल जलाना नहीं.

पहले बारिश के बूँदों के क्या थे मज़े
देखकर ही भींगने दौड़ जाते थे हम
बीच में तो है अब उम्र की दहलीज़
बस फुहारों पे ही थमते अपने कदम.
इन बूँदों में है हर एक ग़म की दवा
इनसे डरकर तुम तन को बचाना नहीं.

कभी यशोदा सी तू, कभी रानी कर्णावती
कभी राधा तू दिल की और कभी रुक्मिणी
कहीं माता का आँचल, तो तू है बहना कहीं
संगिनी तू कहीं, कहीं प्यारी बिटिया बनी.
जो भूले तेरे लिये अपनी पहचान को
तुम अहसान उसका यूं भुलाना नहीं.

Tuesday, September 6, 2022

तेरी याद आती है

 

होंठों की जो वो रौनक तुम्हारे साथ जाती है

आंखों में ये चमक तेरे आने के बाद आती है

मुस्कान यूं फीकी पड़ी जो तेरे दरस के बिन

खुशी का ज़िक्र होता है तो तेरी याद आती है !


ये मीठा दर्द दिल का तेरे इश्क की मोहलत है

नूर ये चेहरे का मेरा भी तुम्हारे ही बदौलत है

तू मेरी नहीं है और न कोई हक मेरा तुम पर

तेरी मूरत जो दिल में है वो बस मेरी दौलत है !


फकीरी कितनी भी सच्ची हो अमीरी जीत जाती है

प्यार और मोहब्बत सदा ही रईसी से मात खाती है

किस्सा आज का ही नहीं, धरा का है ये सदियों से

शशि के इश्क की ना कद्र, चक्कर रवि के लगाती है !


तबियत मिली ऐसी संग धारा बहना ही नहीं भाया

सोहबत ही रही ऐसी भीड़ में रहना ही नहीं आया

काबिलियत सारी पायी थी हमने कामयाब होने की

बात बस इतनी थी ढंग से झूठ कहना भी नहीं आया !


तय ठिकाना तेरा, तू वहीं जायेगा

आंखों के आगे फिर तू नहीं आयेगा

अपने सीने में घर जो बनाया तेरा

अब यहां से तो वो न कहीं जायेगा !


खुशी न देख जिसकी, मुस्कान मेरा रूठ गया

रतजगे उसके देख, मेरा नींद से नाता छूट गया,

फिर भी मांगा मुझसे उसने वादा जो भरोसे का

खुद अपने पर से ही तब, भरोसा मेरा उठ गया !


यूं ना किसी की नींद, किसी का चैन तुम्हें हरना था

प्यार साथ तो था तेरे, क्यूं किसी और पे मरना था,

जो पूछा उसने सवाल तो बताओ क्या गलत पूछा

पगले तुम्हें ज़रा तो सोच समझकर इश्क करना था !






Sunday, August 21, 2022

चंद मुक्तक

कलम भी वही थी और शब्द भी कहां बुरे थे

चित्र बेरंग ही थे सारे मेरे, पास रंग तो पूरे थे

नवाज़िश कैसे अदा करुं तेरा बता मुझे तूही

कविता शेर मुस्कान ख्वाब, सब तो अधूरे थे.


ज़िंदगी से परेशां हू पहेलियां यूं न बुझाया कर

गुम हूं अनजान राहों में तू भी न भटकाया कर

ज़माने ने बेवजह दे दिया दर्जा अक्लमंदी का

तू तो इत्मिनान से इस नादां को समझाया कर.


आंखों का आंखों में खोना जादू सबने जानी है

आंखों में डूब जाना इसकी तो अलग कहानी है

आंखों से दिल तक ना पहुंचे दिल की ही बात

आंखों का फिर आंखों से मिलना ही बेमानी है.


ग़म में यूं रोते रहने से बता होना क्या हासिल है

ना तेरे जानिब कस्ल है ये ना ही तू ना-काबिल है

मन को तू फ़तेह कर ले ज़ंग तेरी फिर आधी है

सोच ही तेरा दर्दे दरिया सोच ही तेरा साहिल है.


अलम पर यूं पर्दा न कर दर्द नासूर हो जायेगा

तेरा ग़म मेरे रंज से मिला तो ग़म दूर हो जायेगा

ज़माने की बातों का परवाह ही कयूं करना कभी

उंगलियां जो उठेगीं तो तू भी मशहूर हो जायेगा.

ये पल

मेरे आंखों के वो सुर्ख अहसास

उन्हें पढ़ने को अपनी अमिट आस

लेकर मेरे करीब न आ पाओगे कल

सच में तब बहुत याद आएंगे ये पल


दिल में रखी हर बात जो संभाल के

सामने बैठ यूं आंखों में आंखे डाल के

ना सुना पाउंगा ये बातें, कविता, ग़ज़ल

हां तब बहुत याद आएंगे ये पल


मुझे देख आंखों की वो मासूम चमक

और तुम्हें देख चेहरे की जाहिर रौनक

तेरी मुस्कान, हंसी, शरारत, वो चुहल

सीने से लगा कर रखे हैं सारे ये पल


तेज सांसों में वो धड़कन का डेरा

और गले में उन मंजुल बांहों का घेरा

अधरें वो ललित, मधुर, मृदुल, निश्छल

कितने अनमोल खजानें दे गये ये पल


बिन कहे जो दिल की सुन ली हर सदा

कैसे शुक्रिया कर सकता भला मैं अदा

ख्वाबों में गढ़े थे जो खूबसूरत महल

सोचा भी न था सच होंगे कभी ये पल


जब भी कभी होंगे कुछ दर्द भरे मौसम

आंखें होंगी नम और दिल में होंगे ग़म

छायेंगे जब भी दुश्वारियों के घने बादल

तब मेरा हौसला मेरी ताकत होंगे ये पल

Saturday, August 20, 2022

यकीन कर

सितारे उतर आयेंगें तेरे लिये ज़मीन पर

अंधेरों की फिक्र में न दिल ग़मगीन कर !


ऊपर वाले पे भरोसा नहीं तो ना सही

एक बार ज़रा ख़ुद पर तो यकीन कर !


भटक आया करो तुम मेरे ख्वाबों में

कभी यूं मेरी रात को भी हसीन कर !


खुशियां छलकेगी तुम्हारे भी होठों पर

बस किसी की आँख मत नमकीन कर !


आँखें जो चुरा लेते हो निगाह मिलते ही

मेरे बेगुनाह नज़रों की न यूं तौहीन कर !


हसरतों में रंग भरना तो आसां है दोस्त

बात तो तब हो जो नक़्शे क़दम रंगीन कर !


चाहत-ए-दिल ना मिले तो अफसोस क्यूं

कभी ख़ुदा की नेमत पर भी तस्क़ीन कर !


माना खुशियों की जेब खाली है आज तेरी

दिल को तू ना अपने ज़रा भी मिस्कीन कर !


अपने घर से ही बेगाना हो जायेगा देख

खुद को न यूं तू औरों में तल्लीन कर !


सारी दौलत तेरे सारे ख़ज़ाने बेमानी होंगे

तू अपनी औलाद को गर न ज़हीन कर !


ख़िरद-मंदी के किरदार में थक गया है दिल

चल आ अब कोई नादानी ताज़ातरीन कर !


इश्क़ है तो बस लफ़्ज़ों से ना ज़ाहिर कर

बांहों में भर उसे और फिर मुतमईन कर !

Wednesday, August 17, 2022

हम कुछ नहीं कहते

वर्ष 1958 की फिल्म अदालत में एक खूबसूरत गीत है जिसे राजेन्द्र कृष्ण साहेब ने लिखा और लता मंगेशकर जी ने आवाज दी. इसी गीत के रदीफ़ "हम कुछ नहीं कहते" को आगे बढ़ाते हुये कुछ बंध लिखे हैं.

पहले चार बंध मूल गीत से...


उनको ये शिकायत है
कि हम कुछ नहीं कहते
अपनी तो ये आदत है
कि हम कुछ नहीं कहते.

मजबूर बहुत करता है
ये दिल तो ज़ुबां को
कुछ ऐसी ही हालत है
कि हम कुछ नहीं कहते.

कहने को बहुत कुछ था
अगर कहने पे आते
दुनिया की इनायत है
कि हम कुछ नहीं कहते.

कुछ कहने पे तूफान
उठा लेती है दुनिया
अब इसपे कयामत है
कि हम कुछ नहीं कहते.


अब इसी रदीफ़ को लेकर कुछ बंध लिखे हैं मैंने, वो पेश कर रहा हूं.....


सुकून मिलता है दिल को
तुमको ही बताने में
फिर तुमसे ही ये फितरत क्यूं
कि हम कुछ नहीं कहते.

तुमने तो न देर की
बयां करने में जज़्बात
तुम पर ही क्यूं जुल्मात है
कि हम कुछ नहीं कहते.

अंदाजे बयां कितने हैं
जाने तो है ये तू भी
कशमकश सी लगी मन में है
कि हम कुछ नहीं कहते.

तुमने भी तो पढ़ा होगा
सुना करती हैं दीवारें भी
चार दीवारें हैं यहां, समझो क्यूं
कि हम कुछ नहीं कहते.

अरसे से तमन्ना थी तेरे
दिल के करीब जाने की
पास हो तुम फिर क्या उलझन
जो हम कुछ नहीं कहते.

मालूम है ख़ुदा सुनता है
गर यकीने दिल से कहो तो,
तुझमें ख़ुदा है, खुद पे भरोसा है
पर हम कुछ नहीं कहते?

गर चाहत को लगे पंख
तो चाहे खुला आसमां ही
मेरे ख़्बाव मेरी बात सुन ना ले
सो हम कुछ नहीं कहते.

मेरे शब्द ही कम-कद्र है
या आपके दाद की कमतरता
लगता है अच्छा ही था
कि हम कुछ नहीं कहते.

दिल उड़ने चला है

तेरी आंखों के रंग पढ़ के

मधुर अनुराग में पड़ के

कुछ ख्वाब सुहाने गढ़ के

फिर दिल उड़ने चला है !


मन की उमंगें जान कर

तुम को अपना मान कर

इस रिश्ते को पहचान कर

आज दिल उड़ने चला है !


कोई अपना जब भी रुठा था

एक साथी भी कहीं छूटा था

मासूम ये रोया था, टूटा था

वही दिल उड़ने चला है !


न ऊंचाई का कोई ज्ञान है

न हवाओं के रुख का भान है

ज़रा सोचो कितना नादान है

फिर भी दिल उड़ने चला है !


हौसले भी तो तेरे झुके से थे

तरंगें भी तो कब से रुके से थे

कदम भी तो कितने थके से थे

करामात कि दिल उड़ने चला है !


ग़म के बादल यूं भागे हैं

अरमां कुछ क्यूं जागे हैं

न जाने अब क्या आगे है

जब दिल उड़ने चला है !

दो पल


१.छुटपन के खेल

मिट्टी का खिलौना,

नानी की गोद

मखमली बिछौना.


फूल और तितली

झूलों संग हिचकोले,

कितने थे मीठे वो

आम के टिकोले.


बस मस्ती थी तब

ना ग़म का ख़लल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


२.स्कूल का बस्ता

भारी वो स्लेट,

सारा टिफिन बांटके

ही भरता था पेट.


टीचर की डांट पे

वो आंखें रुआंसी,

दोस्त मेरा पहला और

वो पहली शाबासी.


छुट्टी की घंटी सुन

खुशियों की हलचल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


३.तोता मैना कौर

मां का खिलाना

लोरी और थपकी

प्यार से सुलाना.


मेरी हर मुस्कान पे

खुश उसका होना

हल्की सी चपत

फिर खुद ही रोना.


दुनिया थी मेरी

मां का आँचल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


४.कॉलेज की कैंटीन

यारों का मेला,

क्लास बंक करके

चाय का वो ठेला.


आंखों का मिलना

और थोड़ा शरमाना

हल्की सी मुस्कान

और नज़रें चुराना.


एक झलक पाने को

होना फिर बेकल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


५.उड़ना नींदों का

खुली आंख सपना,

लुका छिपी इशारे

पहला प्यार अपना.


दिल की वो बातें

होठों पर ना आना

तेरे लिये चिट्ठी

तुझसे ही छुपाना.


ऊंगली के स्पर्श पे

ख्वाबों के महल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


६.पहली वो ज्वाइनिंग

खुशियां वो अपार,

खजाने सी दौलत

थी पहला पगार.


पहला सेक्शन और

वो ट्रेनिंग के सेशन,

स्वतंत्र जिम्मेदारी और

सफलता का सेलिब्रेशन.


नये कुछ चैलेंजेज

आनंद वो अव्वल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


७. दरवाजे की दस्तक पे

पापा पापा की पुकार,

गोद में आ चढ़ना

वो प्यार और दुलार.


पोएम सुनाते जब

वो तोतली जुबान,

हर दर्द की दवा

दूर करती थकान.


सुनहरे ये चित्र

हो गये ओझल !

काश थम जाते

वो प्यारे दो पल !!


८. बीत गये काल जो

लगते वो सुहाने,

याद तब आते

वो गुजरे ज़माने.


भविष्य की चाह में

बस सपने संजोना,

अमूल्य वर्तमान को

निराधार यूं खोना.


लौट के न आने

फिर से ये कल

हैं बड़े अनमोल

ये हमारे दो पल

जी लो जी भर के

ये प्यारे दो पल !!

Saturday, August 13, 2022

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसान होती

मंज़र ये तेरे पहले से कुछ तो पता देते

कल होगी सुबह कैसी ये तो बता देते

कभी ज़रा सी तूभी तो प्री-प्लान होती

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसान होती


कभी नाम देके नाते को भाव दिये तुमने

भाव मिले कहीं, रिश्ते का नाम लगे ढ़ूंढ़ने

अचरज क्या जो तेरी बांहें, हैं हैरान होती

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसान होती


तुझको ना यूं इतना मैं उलझाता

पढ़ के उदाहरण खुद ही सुलझाता

तू पाठ्यपुस्तक कोई विज्ञान होती

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसान होती


जब हौसले दिये चट्टान से, शांत थी हवायें

जब टूटा था दिल, तो तूफां बवंडर उठाये

अपने मुताबिक कभी कदमों में जान होती

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसान होती


शिकवा है ये खुद से, मैं जताता क्यूं नहीं

प्यार है इतना, ज़माने को बताता क्यूं नहीं

काश ये दुनिया भी इतनी नादान होती

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसान होती


होंठ रहें खामोश, जब दिल चाहे कहना

मति का ही सुन के, फिर क्यूं बयां करना

दी तूने गर दिल को अलग से ज़ुबां होती

री ज़िन्दगी, तू थोड़ी तो आसां होती


ये असर ऐसा है सब आपके इरशाद से

करता हूं नज़र इसको आपके हर दाद पे

कविता भला ऐसी आपके बिन कहां होती

री ज़िन्दगी, काश तू ऐसी ही आसां होती !

असली जेवर

  शादी के कुछ तीन चार महीने के बाद जब थोड़ा थम गया मन का उन्माद   भोलाराम को सहसा ही आया याद कि मधु - चंद्र का...